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उस्ताद जाकिर हुसैन खाँ का एकल तबला वादन सुनते हुए / महेश आलोक

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और यह रहा उठान
देखो-देखो सोचते पहाड़ की- सी गंभीरता

अनार फूट रहे हैं अँगुलियों से
नहीं-नहीं हिरनी की टेढ़ी-मेढ़ी चाल और उछाल है उसमें
और लो आकाश और पृथ्वी की छेड़छाड़ भी
दिखा दी हजरत ने

अजीब सनकी आदमी है
पूरा प्रेक्षागृह तीन टुकड़ों में बाँट दिया
लेकिन भई मजा आ गया
अब तो आनन्द ही दूसरा है
अँगूर के दाने की तरह झमझमाकर बरस रहे पानी में
नहाने का

और यह जो बिजली कड़की है
और लो आखिर गिर ही गयी
लेकिन कमाल है कुछ नष्ट नहीं हुआ
हमारे चेहरे थोड़ा ज्यादा चमकदार हो गये हैं

मैंने गौर किया हवा पालथी मारे बैठी है मेरे बगल में
और झूम रही है
उसमें झूमता हुआ सूरज इतना पवित्र है जैसे
तबले पर थिरकती हुई अँगुलियाँ
पूरब की दिशा हों

मैने हवा को थोड़ा खुदकिआया
और हवा में मेरी अँगुलियाँ महक में डूब गयीं
हवा में सूरज की महक तबले की ठनक जैसी लग रही है
और लो पानी का एक रेला
गुजर गया ऊपर से मुस्कुराकर
कि एक घोड़ा पूरे कायदे से निकला और सरपट भाग गया
क्षितिज में

साँसों में घोड़े की टप-टप की आवाज एक लय में बज रही है
और सचमुच कहीं चमत्कार है तो यहीं है

मेरे अन्दर बर्फ की तरह जमा हुआ पहाड़
पिघल रहा है