उस अँधेरी रात में बस दिल दरख्शां थे सभी
काफिला चलता हुआ फिर जश्न तक आ ही गया
इक शजर ने छांव दे कर हाथ सर पर रख दिया
रास्ता मंज़िल को जाता फिर समझ आ ही गया
सच का चेहरा ओढ़ कर वो किस कदर मसरूर था
एक दिन वो शख्स आईने से कतरा ही गया
इक सियासतदान ने तक़रीर की थी कल यहाँ
अपने लफ़्ज़ों में वो सारी बस्ती उलझा ही गया