भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उस काकुल-ए-पुर-ख़म का ख़लल जाए तो अच्छा / शाह 'नसीर'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उस काकुल-ए-पुर-ख़म का ख़लल जाए तो अच्छा
दिल सर से बला तेरे ये टल जाए तो अच्छा

बोसे का सवाल उस से करूँ हूँ तो कहे है
चले रे मिरे कुछ मुँह से निकल जाए तो अच्छा

इसबात न हो दावा-ए-ख़ूँ उस पे इलाही
सूरत मिरे क़ातिल की बदल जाए तो अच्छा

ले सर पे बवाल अपने पतंगों का न ऐ शम्अ
तू और भी जोबन से जो ढल जाए तो अच्छा

डसने को मिरा दिल है तिरी ज़ुल्फ़ की नागिन
ताऊस-ख़त उस को जो निगल जाए तो अच्छा

हम चश्‍मी तेरी चश्‍म से करता है ये बादाम
उस को कोई पत्थर से कुचल जाए तो अच्छा

ज़ुल्फों के तसर्रूफ में है बे-वजह रूख़-ए-यार
कुफ़्फार का काबे से अमल जाए तो अच्छा

ख़ूँ हो के रवाँ दिल हो गर आँखों से तो बेहतर
या इश्‍क़ की आतिश में ये जल जाए तो अच्छा

लब पर से बुलाक़ अपनी दम-ए-बोसा उठा दो
अंदेशा-ए-ज़म्बूर-ए-असल जाए तो अच्छा

पहलू से निकल जाए अगर दिल तो बला से
तू छोड़ के ख़ाली न बग़ल जाए तो अच्छा

कहते हैं ‘नसीर’ अपनी न तुम आह को रोको
ये तीर निशाने पे जो चल जाए तो अच्छा