जाएगी
लहरों पर तिरती
इस छोर से,
उस छोर तक
पालों वाली नाव ।
नहीं लुभातीं
नभ की बातें
अब न तारों की मुस्कान
कहाँ पहुँचकर
मिट पाएगी
तन की, मन की यह थकान
दुखने लगते पाँव ।
कितने
आशीर्वाद भुलाकर
सदा झेले
हैं अभिशाप,
शीतल छाया
हमने बाँटी
सहा अपने
सिर पर ताप ।
झेले सभी अभाव ।
-0-(20/3/91-केरल भारती जनवरी 93)