भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उस जंगल का नाम / वाज़दा ख़ान

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:13, 7 दिसम्बर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वाज़दा ख़ान |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुझे ढेर सारे फूल चाहिए
उस रात को ढकने के लिए
जहाँ मेरे सारे रंग खो जाते हैं
बचती है आर्द्रता सोचती रहती हूँ
सुनहरे होते सपनों के साथ
रंगों से लिख दूँगी असीम दुलार की
एक नई भाषा कोई अंतर्कथा जो
प्रथम प्रतिश्रुति बने
पर वे गायब हो जाते हैं हर रात
कभी कभी दिन में भी
यहाँ दिन रात का कोई अर्थ नहीं
अर्थ सिर्फ उनके लापता हो जाने से है
फिर याद आ जाती है
न चाहते हुए भी हरे भरे वृक्षों पर
पुष्पित होते फूलों की
किस घनेरे होते जंगल में देखा था उन्हें
अब तो भूल गयी हूँ
उस जंगल का नाम
हाँ रास्ता अभी भी याद है जरा जरा।