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उस से बिछड़ के जी का ज़ियाँ कम नहीं हुआ / राशिद हामिदी

उस से बिछड़ के जी का ज़ियाँ कम नहीं हुआ
कुछ बढ़ गया है दर्द-ए-निहाँ कम नहीं हुआ

मेहवर बड़ी का कौन है ये जानते हैं सब
लेकिन तिलिस्म-ए-फ़ित्ना-गिराँ नहीं हुआ

तर्क-ए-तअल्लुक़ात को अरसा हुआ मगर
जश्न-ए-शिकस्त-ए-क़रिया-ए-जाँ कम नहीं हुआ

आगे अमानतों का कड़ा एहतिसाब है
मर कर भी सर से बार-ए-गिराँ कम नहीं हुआ

महताब यूँ तो लाख उगाए यक़ीन ने
मेरी नज़र में हुस्न-ए-बुताँ कम नहीं हुआ

अपनी बिसात-ए-रूह मैं कैसे समेट लूँ
‘राशिद’ अभी तो कार-ए-जहाँ कम नहीं हुआ