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ऊबड़-खाबड़ रस्ता जीवन इच्छाओं की गठरी सर / विनोद तिवारी

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ऊबड़-खाबड़ रस्ता जीवन इच्छाओं की गठरी सर
दिन भर भटके जंगल-जंगल शाम को तन्हा लौटे घर

लोग मिले जो बात-बात पर लड़ने को आमादा थे
सब हैं दहशतज़दा गाँव में सबके अपने-अपने डर

परवाज़ों का अन्त नहीं था डैने साथ अगर रहते
जल्लादों ने डेरे डाले गुलशन के बाहर भीतर

उजले तन काले मन वाले बस्ती के पहरे पर हैं
इक सच बैठा काँपे थर-थर झूठ बना बैठा अफ़सर

निष्ठा से परिचय कुछ कम था अवसर परख न पाए लोग
मरे उम्र भर मेहनत करते और नतीजा रहा सिफ़र