भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ऊषा काल / श्रीनाथ सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चिड़ियाँ बोलीं, हिलीं लताएँ लगी झूमने तरु शाखाएं
पूर्व दिशा में रहे न तारे।
ऑंखें खोलो बोलो प्यारे
लगी चटखने चटचट कलियाँ
मह मह महक रहीं हैं गलियां
दुहते हैं ग्वाले गड़ गायें।
बहती हैं स्वर्गीय हवाएं
आँखों पर आयी अलसानी,
थकी हुई है निद्रा रानी।
रात तुम्हारी कर रखवाली,
जागो, अब है जाने वाली
चंदा की मुस्कान निराली,
तारों भरी गगन की थाली
बाग बगीचों में आ बिखरी
फूलों की क्या रंगत निखरी
मांग रही भर, उषा निराली
पूरब में फैली है लाली
अब न रहा है बहुत अँधेरा
उठो आ गया पुनः सवेरा