भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ऋतुराज इक पल का / बुद्धिनाथ मिश्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राजमिस्त्री से हुई क्या चूक, गारे में
बीज को संबल मिला रजकण तथा जल का।
तोड़कर पहरे कड़े पाबंदियों के आज
उग गया है एक नन्हा गाछ पीपल का।

चाय की दो पत्तियोंवाली
फुनगियों ने पुकारा
शैल-उर से फूटकर उमड़ी
दमित-सी स्नेह-धारा|
एक छोटी-सी जुही की कली
मेरे हाथ आई
और पूरी देह, आदम
खुशबुओं से महमहाई|

वनपलाशी आग के झरने नहाकर हम
इस तरह भीगे कि खुद जी हो गया हलका।

मूक थे दोनों, मुखर थी
देह की भाषा
कर गया जादू ज़ुबां पर
गोगिया पाशा
लाख आँखें हों मुँदी-
सपने खुले बाँटे
वह समर्पण फूल का
ऐसा, झुके काँटे

क्या हुआ जो धूप में तपता रहा सदियों
ग्रीष्म पर भारी पड़ा ऋतुराज इक पल का।

शब्दार्थ :
गोगिया पाशा= देहरादून का एक प्रसिद्ध जादूगर

(रचनाकाल : 15.02.2002)