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एकांत का दर्द / अनिरुद्ध प्रसाद विमल

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आज कृष्ण पक्ष की एकादशी है
रात का तीसरा पहर
अंधकार के गर्भ से चांदनी
उसकी सुगंध भरी देह के
श्वेत पुष्प-पराग-सी
धरती पर विछने लगी है
और मैं चुनने लगा हूँ
उन यादों के फूलों को
जो बीते हुए अंधेरे क्षणों में
बिखर कर खो गये थे।

मेरे एकांत का यह दर्द
घाटियों में गूँजती
पर्वतों से टकराने लगी।
मैंने बह रही हवाओं से पूछा
री, तुम कहाँ से आ रही है ?
शायद तुम्हारा आना
उस देश से तो नहीं
जहां धान के बौरा रहे पौधों के बीच
टेढ़ी-मेढ़ी मेढ़ों से होकर
मेरी प्रिया गुजरा करतीं है
जहाँ से,
उसके बालों की सुगंधि लेकर
तुम परियों के देश तक जाती है
लेकिन हवा कुछ नहीं बोली
कुछ नहीं बोली
केवल बहती रही
मुझे हवाओं का छूना
ठीक वैसा ही लगा
जैसे वह मेरी देह को छुआ करती थी।
हवा की सिसकारियों मे
उसके चुम्बनों की आवाज थी
मैं चाहता था
हवा ठहरे
लेकिन वह ठहरी नहीं
और मैं पुकारता रहा
पुकारता रहा।