Last modified on 25 जुलाई 2016, at 02:40

एक अच्छी नींद के लिए / गीताश्री

एक अच्छी नींद के लिए
सोते हुए मैं पृथ्वी हो जाती हूँ
तुम कहते हो तुम्हें पूरा बिछौना चाहिए
मैं ख़ुद को उछाल देती हूँ आकाश की तरफ़
तुम अपलक देखते हो मेरी निस्सीम उड़ान
तुम्हारी प्रतीक्षा के आँकड़े
बदल जाते हैं असंख्य तारो में
सोई हुई देह साथ नहीं ढूँढ़ती
जगी हुई देह में है तुम्हारी खोज
देह के स्वप्न में जागती हुई
मेरी बाँहें भरती हैं नींद को
मेरी नींद से परे है तुम्हारा होना
मेरी नींद को चाहिए मुक्ति-स्वप्न
बेख़ौफ़, बेफ़िक्र मैं अपने बिस्तर पर छितराई हुई
आजादी के स्वप्न में मग्न होती हूँ
नींद में भी नहीं मिलती आज़ादी
मैं जागरण के पास छोड़ आती हूँ, अपनी भावनाएँ
मैं आकाश में खोना चाहती हूँ
वह मेरे लिए स्वप्न की तरह भीतर है
जहाँ मैं धीरे-धीरे खोलती हूँ...
अपना ब्रह्माण्ड ।