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एक अरगनी / महेश उपाध्याय

बाँध गई रातें भुजबँधनी
अनदेखी एक अरगनी

यादों की एक तेज़ धार
काट गई नींद का कगार
डूब गए घाट के महल
रूख ढह गए अगल-बगल

हम ज्यों-ज्यों दुहराए कूल-से
हवा हुई और कटखनी ।