भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक अरगनी / महेश उपाध्याय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बाँध गई रातें भुजबँधनी
अनदेखी एक अरगनी

यादों की एक तेज़ धार
काट गई नींद का कगार
डूब गए घाट के महल
रूख ढह गए अगल-बगल

हम ज्यों-ज्यों दुहराए कूल-से
हवा हुई और कटखनी ।