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एक आत्मकथा को पढ़कर / रंजना जायसवाल

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‘ये रण्डी कौन होती है’ पूछा था मैंने बचपन में मां से
मां ने अचरज से पहले मुझे
फिर पड़ोस में हो रहे झगड़े को देखा
और बताया ‘जो नाचने-गाने का धंधा करती हैं वे’
और हिदायत दी ‘गाली है गन्दी गाली
यह शब्द मुंह से मत निकालना’
थोड़ी बड़ी हुई तो पिता को दुहराते देखा यह शब्द
जिस किसी भी दूसरी औरत के लिए
कभी-कभी मां के लिए भी
जब कभी वे अपनी मर्जी से कर बैठतीं कोई काम
बाद में भाई ने भी पकड़ा पिता का रास्ता
तब जाना पुरुषों को विरासत में मिला यह शब्द
इतना विस्तृत है कि उसमें
समा जायें संसार की सारी औरतें

वैसे तो पुरुष बचाता है मां...बहन...बेटी को इस शब्द से
पर दूसरे पुरुषों के लिए वह भी तो होती है
सिर्फ औरत ही
फिर वही उलझन सभी औरतें तो नहीं करती धंधा
फिर क्यों कहीं जाती हैं कभी न कभी रण्डी

तब जाना
जो देह का धंधा करती हैं
सिर्फ वही नहीं
पुरुष की हथेलियों से फिसलतीं
लक्ष्मण-रेखा लांघती हैं जो
अधिकार मांगती हैं जो
अनिच्छित प्रेम...अस्वीकारती हैं जो
अपना अस्तित्व पहचानती हैं जो
अपने देह-मन को पहचानती हैं जो
यानी की पुरुष का कहा नहीं मानती हैं जो
वे भी कही जाती हैं रण्डी

सोचती हूं किसने बनाया होगा यह शब्द
ज़रूर पुरुष ही होगा
क्या उसने अपने लिए भी बनाया
क्या ऐसा ही समानार्थी शब्द?
और क्या...कोई ऐसा भी पुरुष हुआ
जिसने उठाई हो इस शब्द के खिलाफ आवाज?
शायद नहीं तभी तो हर भाषा में...हर बोली में
उसी मारक अर्थ में रूप-भिन्नता के बावजूद
मौजूद है यह शब्द
भाषा विज्ञान के अनुसार कुछ शब्द लुप्त हो जाते हैं
कुछ देने लगते हैं
नये अर्थ समय के साथ
पर यह शब्द तो अंगद का पांव ही नहीं
सचमुच ब्रह्म हो गया है
बढ़ाता ही जा रहा है निरन्तर
अपना अर्थ-विस्तार
घेरता जा रहा है ज़्यादा से ज़्यादा
स्थान
कवि हो या दार्शनिक
साहित्य...संगीत...कला मर्मज्ञ हो या
अदना सा आदमी
पढ़-अपढ़
सभ्य-असभ्य
गृहस्थ-सन्यासी
सबके होंठों से फूल की तरह झरता यह शब्द
अब स्त्रियों की जुबान पर भी चढ़ गया है

सास-बहू, ननद-भौजाई ही नहीं
दूसरे स्त्री-रिश्तों में भी खूब जाता है उछाला
यह शब्द
वैसे स्त्री द्वारा इस्तेमाल करने पर कम मारक
होता है यह शब्द
पुरुष के मुंह से निकलते ही बन जाता है
‘शक्ति-बाण’
कभी खाली न जाने वाला
पुरुष जानता है यह बात
इसीलिए बार-बार इस्तेमाल करता है!