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एक आवाज़ / प्रियंका पण्डित

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एक आवाज़
मेरे पास आई
अनजान पते पर
भेजी गई मुकम्मित चिट्ठी की तरह
टुकड़े-टुकड़े उदासियों को रौंदते हुए
मेरे क़रीब... हाँ! तक़रीबन क़रीब ही तो आई थी
एक फ़ाँक रोशनी के लिए

शुष्क पत्तियों से भरी
हवा की नदी जब बह रही थी
किसी ने आवाज़ दी मुझे
ओस से भीगे
स्वेत सितारों की तरह
मैंने ख़ुद को गुलाबों में देखा
अब जबकि मैं पेड़ के पत्तों के जादू में
गुम हो रही हूँ
यक़ीनन इतिहास मुझे खोजेगा
और वह आवाज़ भी...