भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"एक उम्र के बाद माँएँ / गगन गिल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 8: पंक्ति 8:
 
खुला छोड़ देती हैं लड़कियों को
 
खुला छोड़ देती हैं लड़कियों को
  
उदास होने के लिए!
+
उदास होने के लिए...
  
  
पंक्ति 17: पंक्ति 17:
 
लड़कियाँ उदास नहीं रहेंगी,
 
लड़कियाँ उदास नहीं रहेंगी,
  
कम-अज-कम उन बातो के लिए तो नहीं
+
कम-से-कम उन बातो के लिए तो नहीं[[कड़ी शीर्षक]]
  
 
जिनके लिए रही थीं वे
 
जिनके लिए रही थीं वे
पंक्ति 23: पंक्ति 23:
 
या उनकी माँ
 
या उनकी माँ
  
या उनकी माँ की माँ
+
या उनकी माँ की माँ...
  
  
पंक्ति 46: पंक्ति 46:
 
छोड़ भी देती हैं वे उन्हें अकेला
 
छोड़ भी देती हैं वे उन्हें अकेला
  
अपने हाल पर!
+
अपने हाल पर...
  
  
पंक्ति 74: पंक्ति 74:
 
माँएँ खुला छोड़ देती हैं उन्हें
 
माँएँ खुला छोड़ देती हैं उन्हें
  
एक उम्र के बाद
+
एक उम्र के बाद...
  
  
 
और लड़कियाँ
 
और लड़कियाँ
  
डरते-झिझकते आ खड़ी होती हैं
+
डरती-झिझकती आ खड़ी होती हैं
  
 
अपने फ़ैसलों के रू-ब-रू
 
अपने फ़ैसलों के रू-ब-रू
पंक्ति 92: पंक्ति 92:
 
पूछती हैं अपने फ़ैसलों से,
 
पूछती हैं अपने फ़ैसलों से,
  
तुम्हीं सुख हो?
+
तुम्हीं सुख हो
  
 
और घबराकर उतर आती हैं
 
और घबराकर उतर आती हैं
  
सुख की सीढियाँ
+
सुख की सीढियाँ...
  
  
पंक्ति 111: पंक्ति 111:
 
जो नहीं रहेगी उनके साथ
 
जो नहीं रहेगी उनके साथ
  
सुख के किसी भी क्षण में!
+
सुख के किसी भी क्षण में...
  
  
माँएँ क्या जानती थीं
+
माँएँ क्या जानती थीं?
  
 
जहाँ छोड़ा था उन्होंने
 
जहाँ छोड़ा था उन्होंने
पंक्ति 126: पंक्ति 126:
 
अचानक
 
अचानक
  
बिल्कुल नए सिरे से!
+
बिल्कुल नए सिरे से...
  
  
पंक्ति 133: पंक्ति 133:
 
लांघ जाती हैं वह उम्र
 
लांघ जाती हैं वह उम्र
  
जहाँ खुला छोड़ देती थीं माँएँ!
+
जहाँ खुला छोड़ देती थीं माँएँ.

16:14, 1 जून 2010 का अवतरण

एक उम्र के बाद माँएँ

खुला छोड़ देती हैं लड़कियों को

उदास होने के लिए...


माँएँ सोचती हैं

इस तरह करने से

लड़कियाँ उदास नहीं रहेंगी,

कम-से-कम उन बातो के लिए तो नहींकड़ी शीर्षक

जिनके लिए रही थीं वे

या उनकी माँ

या उनकी माँ की माँ...


मसलन माँएँ ले जाती हैं उन्हें

अपनी छाया में छुपाकर

उनके मनचाहे आदमी के पास,

मसलन माँएँ पूछ लेती हैं कभी-कभार

उन स्याह कोनों की बाबत

जिनसे डर लगता है

हर उम्र की लड़कियों को,

लेकिन अंदेशा हो अगर

कि कुरेदने-भर से बढ़ जाएगा बेटियों का वहम

छोड़ भी देती हैं वे उन्हें अकेला

अपने हाल पर...


अक्सर उन्हें हिम्म्त देतीं

कहती हैं माँएँ

बीत जाएंगे, जैसे भी होंगे

स्याह काले दिन

हम हैं न तुम्हारे साथ!

और बुदबुदाती हैं ख़ुद से

कैसे बीतेंगे ये दिन, हे ईश्वर!


बुदबुदाती हैं माँएँ

और डरती हैं

सुन न लें कहीं लड़कियाँ

उदास न हो जाएँ कहीं लड़कियाँ

माँएँ खुला छोड़ देती हैं उन्हें

एक उम्र के बाद...


और लड़कियाँ

डरती-झिझकती आ खड़ी होती हैं

अपने फ़ैसलों के रू-ब-रू


अपने फ़ैसलों के रू-ब-रू लड़कियाँ

भरती हैं संशय से

डरती हैं सुख से

पूछती हैं अपने फ़ैसलों से,

तुम्हीं सुख हो

और घबराकर उतर आती हैं

सुख की सीढियाँ...


बदहवास भागती हैं लड़कियाँ

बदहवास ढूंढ़ती हैं माँ को

ख़ुशी के अंधेरे में

माँ कहीं नहीं है

बदहवास पकड़ना चाहती हैं वे माँ को

जो नहीं रहेगी उनके साथ

सुख के किसी भी क्षण में...


माँएँ क्या जानती थीं?

जहाँ छोड़ा था उन्होंने

उदासी से बचाने को,

वहीं हो जाएंगी उदास लड़कियाँ

एकाएक

अचानक

बिल्कुल नए सिरे से...


उदास होकर लड़कियाँ

लांघ जाती हैं वह उम्र

जहाँ खुला छोड़ देती थीं माँएँ.