भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक औरत के गुनाह / मनीषा कुलश्रेष्ठ

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ये गुनाह हैं क्या आखिर?
ये गुनाह ही हैं क्या?
कुछ भरम,
कुछ फन्तासियां
कुछ अनजाने - अनचाहे आकर्षण
ये गुनाह हैं तो
क्यों सजाते हैं
उसके सन्नाटे?
तन्हाई की मुंडेर पर
खुद ब खुद आ बैठते हैं
पंख फडफ़डाते
गुटरगूं करते
ये गुनाह
सन्नाटों के साथ
सुर मिलाते हैं
धूप - छांह के साथ घुल मिल
एक नया अलौकिक
सतरंगा वितान बांधते हैं
सारे तडक़े हुए यकीनों
सारी अनसुनी पुकारों को
झाड बुहार
पलकों पर उतरते हैं
ये गुनाह
एक मायालोक सजाते हैं
फिर क्यों कहलाते हैं ये
एक औरत के गुनाह?