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एक औरत दूसरी औरत / दामिनी

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ओ शहरी औरत!
तुम मुझे हैरानी से क्यों देख रही हो?
हां,
मैंने भवें नहीं नुचवाई है,
वैक्स भी नहीं कराई हैं,
मेरे चेहरे पर ब्लीच की दमक नहीं है
फेशियल की चमक भी नहीं है
फिर भी स्त्री तो मैं भी हूं
आज की स्त्री।
तुम मुझे हैरानी से देख रही हो
देहाती-गंवार समझ
मैं मजबूत हूं तुमसे कई गुना,
क्योंकि मैं झेल सकती हूं धूप की तपिश
बिना सनस्क्रीन के
और मैं करियाऊंगी भी नहीं
लाल-तांबई रंगों की धमक उठेगी मुझसे।
मैं ईंट-गारा ढोती
या खेतों में फसल बोती
मिलूंगी कहीं तुम्हें,
या कहीं पीठ पर बच्चा और
सिर पर गट्ठा ढोते पाओगी तुम मुझे।
मैं मज़बूत हूं तुमसे कई गुना,
क्योंकि मैं रात-बिरात भी
निकल पड़ती हूं अकेले,
बिना आदमखोरों या मादाखोरों के डर के।
मुझे मर्दोंं से डर नहीं लगता है
मेरा कांधा रोज उनके कांधे से भिड़ता है।
मैं लो वेस्ट, स्लीवलैस या बैकलैस तो नहीं जानती,
पर शहरों में भी मैं तुम्हें
किसी उठती इमारत की बुनियाद तले
धोती या लहंगा लापरवाही से खोंसे दिख जाऊंगी।
आओ जंगलों में तो
मेरे आंचल का फेंटा ही मेरी चोली पाओगी।
मैं तुम्हारी तरह शिक्षा के संकोच से
इंच-भर नहीं मुस्कराऊंगी
मारूंगी पुट्ठे पर हाथ और
ज़ोर से ठट्ठा लगा खिलखिलाऊंगी,
हैरान हो तो हो जाओ मुझे देख
क्योंकि जिस वक़्त तुम अपने सवालों की तलाश में
अपने अस्तित्व को ख्ंागालती भटक जाओगी,
मुझ अनपढ़ की बेबाक दुनिया में ही
आज की औरत की सच्ची परिभाषा गढ़ी हुई पाओगी।