http://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%8F%E0%A4%95_%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%AD%E0%A4%BE_/_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%B5%E0%A5%80%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0&feed=atom&action=historyएक चाभा / कुमार वीरेन्द्र - अवतरण इतिहास2024-03-28T20:17:42Zविकि पर उपलब्ध इस पृष्ठ का अवतरण इतिहासMediaWiki 1.24.1http://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%8F%E0%A4%95_%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%AD%E0%A4%BE_/_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%B5%E0%A5%80%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0&diff=264883&oldid=prevअनिल जनविजय: '{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार वीरेन्द्र |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया2019-07-14T13:51:13Z<p>'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार वीरेन्द्र |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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|रचनाकार=कुमार वीरेन्द्र<br />
|अनुवादक=<br />
|संग्रह=<br />
}}<br />
{{KKCatKavita}}<br />
<poem><br />
कहँवा से उमड़-घुमड़ <br />
आए बादल, और ई बरसन बरसे, खेतों में <br />
लग गया पानी, फिर का, फिकिर तितिर बन उड़ी कवनो ओर, शुरू हो गया <br />
लेव लगाना, धान का बीया छींटने को, रोहिन नक्षत्र में, छिंटा जाए, बखत पे <br />
हो जाए शुरू रोपाई, बाबा दूर लेव लगा रहे, बगीचे में मैं <br />
रोहिनिया आम की रखवारी में, दिन-भर <br />
में एक-दो टपकने जो <br />
लगा था<br />
<br />
बरखा रुकी थी, तो था तो <br />
डरार प ही खड़ा, पर जाने कहँवा खोया, सुबेर से <br />
एगो टपका भी, बित्ते-भर पानी जो पेड़ चहुँओर, टपकते लुका गया, जिधर से आई आवाज़ <br />
लात-हाथ से ऐसे घँघोर दिया, गरई मछरी भी उतरा जाती, पर ई आम, टपका तो सही, गया <br />
कहँवा, ग़ज़बे छक-छका रहा था, बरखा जइसन पसीना बहवा रहा था<br />
लेव लगा जब आए बाबा, और कहा, तो बाबा तो बाबा<br />
शुरू हुई फिर ढूँढ़ा-ढूँढ़ी, और बाबा ने <br />
धर ही लिया, लुकाया <br />
था जहाँ<br />
<br />
ढूँढ़ रहा था कहँवा तो <br />
येने-ओने, और कहँवा तो वह जड़ तर ही थथम <br />
गया था, अहा, रोहिनिया रे रोहिनिया, का पियरा के पका था, निहार-निहार 'बाबा की जय बाबा <br />
की जय' करने लगा था, बाबा का क्या, थके-हारे लौटे थे, डरार प बैठ खैनी बनाते, लेव-खेत को <br />
ताके जा रहे थे, जिसमें घास छान-छान मेंड़ प फेंक रहे थे बाबूजी, जितना <br />
साफ़ खेत, उजियाएगा बीया उतना, बाबा खैनी बना रहे <br />
थे, इधर मैं चोंप गार रहा था, बाबा पीट <br />
रहे थे खैनी अब खाने ही <br />
वाले थे, गया<br />
<br />
और कहा, 'बाबा<br />
अबहीं मत खाओ खैनी, कहते हो न<br />
तो खा के कहो, लो, ई चाभो एक चाभा', बाबा जानते थे, ज़िद्दी है, सुनेगा <br />
नहीं, तो रसगर रोहिनिया एक चाभा चाभने के बाद, बाबा का भी मिज़ाज <br />
रोहिनिया जइसन डभा गया; मुस्कुराने लगे, जब एक <br />
चाभा और चभाते कहा, 'काहे बाबा, अब <br />
बताओ अब, मिहनत <br />
का फल<br />
<br />
मीठ होता है न !'<br />
</poem></div>अनिल जनविजय