भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक छोटी सी बात / संतोष कुमार चतुर्वेदी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

परिचय की गुनगुनी धूप में जब हम
बेरोकटोक उठने बैठने लगे
जब बेतकल्लुफी हमारी
इस कदर बढ़ गई
कि कभी एक दूसरे को परेशान करने में
किसी संकोच के शिकार नहीं हुए हम

कि जब हम तुम तुम हम
धीरे-धीरे उस पुरानी कहानी के पंछी बनते चले गए
जिसमें रच बस गई एक दूसरे की जान
तब भी हमने बहुत मुश्किल पाया
तुमसे कहते हुए
यह अपनी छोटी सी बात कि... ...

यही तो मुश्किल थी अपनी
कि लंबी भूमिकाएँ बाँधने के बाद भी
नहीं कर पाते तब हम वह बात
जो मन में होती थी बहुत साफ-साफ
तमाम बातों तमाम मुलाकातों के बावजूद
हम नहीं कर पाए इजहार अपनी चाहतों का
न जाने कितनी बार जुबाँ पर आते आते
फिसल गए वे मीठे से अल्फाज
जिसे कहने के लिए आतुर थे हम न जाने कब से
न जाने कितने एसएमएस में
घुमा फिरा कर किसी और अंदाज में
लिखा हमने अपनी बात
जिसे नहीं पढ़ पाया कोई भी तुम्हारे सिवाय
लेकिन सीधे-सीधे कहने से
साफगोई से बचता रहा मैं
और गलत नहीं हूँ तो शायद तुम भी

सदियों से प्यार की बातें
कहने वाले कहलवाने वाले
सुनने वाले सुनाने वाले हम
आखिर क्यों हिचकते हैं प्यार जतलाने से
जबकि इधर-उधर की बातें करते
कहते-सुनते हम तनिक नहीं हिचकते
चुटकियों में कर डालते हैं डाँटने-फटकारने वाला
खुरदुरा सा काम
छंदों की रूढ़ि पर यकीन न करते हुए भी
संस्कारों से सतत लड़ते भिड़ते हुए भी
कहाँ मुक्त हो पाते हैं हम इनसे पूरी तरह से
कि मन में रची बसी
एक प्यारी सी बात को
साझा नहीं कर पा रहा मैं तुमसे
तुम नहीं कर पा रही हमसे

महज एक छोटी सी बात पर
तमाम किंतु-परंतु को सोचते
अपने आप के डर से लड़ते-भिड़ते
और अपने अब तक के
सारे संकोचों को दरकिनार करते
आखिर जब मैंने कह ही डाली तुमसे
अपने मन की बात
तो तुमने भी हामी भरी
कि बात के एक झंकार से
झंकृत हो गया तुम्हारा तन तुम्हारा मन
और पता चली यह बात भी कि
तुम भी कहना चाहती थी
बिल्कुल यही बात एक अरसे से मुझसे
सुनना चाहती थी बिल्कुल यही बात मुझसे
सारे किंतुओं-परंतुओं को दरकिनार कर

मच जाती है मन में एक अजीब सी हलचल
झूमने लगती है अपनी मस्ती में
देह वृक्ष की सारी टहनियाँ
थिरक उठता है पत्ता-पत्ता अपने सोच का
खयालों से भर जाता है
मेरा समूचा नभ-थल-जल
चाहतों का अंदाज जतलाते
परवाहों को अपनी बेपरवाही से झुठलाते
जब तुम्हारे स्वर का झरना बहता है उन्मुक्त
मेरे परिचय की धरती पर
कल-कल छल-छल