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एक टुकी / कुमार वीरेन्द्र

वह जानती थी
भले ही खाने में दूध-दही हो, थरिया में
गुड़ नहीं, इसका पेट नहीं भरेगा, इसलिए, खाना कोई भी दे, एक टुकी गुड़ ला रख देती
किसी दिन नहीं रखती, समझ जाता — ओरा गया है; चुपचाप खा उठ जाता कि खाने में
जो भी, कभी कुछ कहने की आदत नहीं; लेकिन आजी तो सर्वज्ञानी
उसे जब याद आता, गुड़ देना भूल गई या ओरा गया है
तुरत उपाय करती; खेत, बगीचे में, कहीं
भी होता, एक लोटा पानी
दुगो रोटी

और एक टुकी
गुड़ लिए चली आती; खिसियाते
कहती, ‘अरे अइसहीं कइसे खा लिया...बोल तो सकता था, बउराह कहीं का…’
मैं कितना भी कहता, ‘कवनो बात नाहीं, भरपेट खा लिया है’, विश्वास ही नहीं
करती, रोटी-गुड़ धरा देती; जब खा-पी लेता, लोटा उठा जाने
से पहले कहती, ‘बेटा, अइसा नाहीं करते, हँ
बताओ, अगर इयाद नाहीं आता
तुम दुगो रोटी की
भूख

मार ही न लेते !’