Last modified on 9 जनवरी 2015, at 21:47

एक दिना मणि-खम्भ माहिं मनमोहन ने निज रूप निहारो / स्वामी सनातनदेव

राग परज, तीन ताल 16.6.1974

एक दिना मणि-खम्भ माहिं मनमोहन ने निज रूप निहारो।
आपुहि मुग्ध भये निज छबि पै, को यह कोटि कामसों न्यारो॥
कबहुँ न ऐसो रूप हम देख्यौ जीवन माहिं।
कोटि काम की कान्ति हूँ याके पटतर नाहिं॥
याकी रूपरासि में फँसिके होत न मो मनको निस्तारो॥1॥
कहा करों कैसे करों, मो मन अति अकुलात।
याकी छबि में उरझिके सुरझन पुनि न सुहात॥
निरखत ही नित रहों निरन्तर, कबहुँ न अन्तर होय हमारो॥2॥
प्रिया-भाव निज में भयो, निजता भूले स्याम।
‘हा प्रीतम! हा प्रानधन! कहि-कहि टेरहिं नाम॥
‘आपुहिं निरखि आपुकों भूले अहो! प्रीति को पंथहि न्यारो॥3॥
यह रति-रस अति ही अमल, कापै वरन्यौ जाय।
जाहि मिलै सोई छकै, ताहि न और सुहाय॥
याही रस में मगन होत सो प्रीतम को प्रानहुँ ते प्यारो॥4॥