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एक दिन अति शान्त मन / प्रतिभा सक्सेना

एक दिन अति शान्त मन
मैं चली आऊँगी तुम्हारे पास .
दीप की कँपती हुई लौ जल सके निर्वात ,
तभी आऊँगी तुम्हारे पास !


और, विचलित न हो जब थिर हो सकूँ,
मौसमों से दोस्ती के बीज फिर से बो सकूँ ,
अभी थोड़ा भ्रम बचा ही रह गया होगा .
उबर कर मैं चली आऊँगी तुम्हारे पास !


अभी राहें कहाँ चल कर पास आने को,
रीति-नीति सभी निभाने को पड़ी हैं .
निर्णयों में देर ही होती चली जाती,
और भी कठिनाइयाँ आकर अड़ी हैं .
अभी कहाँ निवृत्ति मेरी ,
शेष हैं कुछ ऋण चुकाने को .
एक दिन जब चुप न रह कर,
बहूँ निर्झऱ सी बिना आयास
चली आऊँगी तुम्हारे पास !


मत बुलाना ,
फिर कहीं कोई विवशता टेर लेगी.
टेरना मत अभी,
द्विविधा लौट कर फिर घेर लेगी .
रस्ते से बुला ले कोई रुकावट ,
कहीं फिर जाऊँ वहीं चुपचाप.
एक दिन सबसे उबर लूँ सिर चढ़े जो दोष,
उसी दिन ऐसा लगेगा अब न कोई टोक .
बीत जाये यह विषम घड़ियाँ बड़ी हैं,
तपन औ', विश्रान्ति शीतल हो कि जब अनयास .
चली आऊँगी तुम्हारे पास !


कुछ समझना रह गया होगा ,
कहीं कच्चापन बचा होगा .
पार हो जायें सभी व्यवधान ,
पूर्ण अपने स्वयं का संधान .
एक दिन आँसू जमे ,
जब पिघल-गल बह जायँ अपने आप ,
चली आऊँगी तुम्हारे पास !


देह के, मन के अभी तो शेष हैं घेरे .
यहाँ के व्यवहार के बाकी अभी फेरे.
कामना के साथ कितने जाल -
घेरते बन व्याल .
सभी धो लूँ दोष, विभ्रमों से मुक्त ,
हो सहज निष्पाप.
नृत्य सी लालित्यमय
बन जाय हर पदचाप .
चली आऊँगी तुम्हारे पास !


एक दिन अति शान्त मन
मैं चली आऊँगी तुम्हारे पास !