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एक दिन ना एक दिन अइबे करी कबहूँ बहार / सूर्यदेव पाठक 'पराग'

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एक दिन ना एक दिन अइब करी कबहूँ बहार
फूल खिल जाई खुशी के बरसी सावन के फुहार

आ सही झंकार जब वीणा के तारन में कसाव
अतने भर चाहीं कसल टूटे ना ओ कर तन के तार

तेल बाती के बिना कइसे करी दियरी अँजोर
सब रहे तबहूँ बचाईं, ना बुता पावे बयार

फूल खिलते फैल जाई मोह ली मन के सुवास
गुन रही, गुनग्राहियन के कान में कह दी पुकार

छोट भइला से महातम कम ना हो जाई ‘पराग’
ना पिये केहू पियासल जल भरल सागर के खार