भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक दिन / सुरेश ऋतुपर्ण

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 06:09, 21 जनवरी 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुरेश ऋतुपर्ण |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बँधी मुट्ठी से
रेत की तरह
झर जाएँगे हम एक दिन

रूपहले कणों में झिलमिलाते
याद आएँगे बहुत
मगर हम एक दिन

उड़ेंगे ऊपर आसमान में
पतंग की तरह
रंगों के पूरे उठान के साथ
उम्र की सादी डोर पर
वक़्त का तेज़ माँझा
चलाएगा अपना पेच
हिचकोले खाते गिर जाएँगे हम एक दिन

हवाओं की लहरों पर
थिरकती कंदील की है क्या बिसात
बरसा कर झिलमिलाते रंगों की लड़ियाँ
बुझ जाएँगे हम एक दिन

घाटी में खिलखिलाते
दौड़ लगाएँगे बच्चों की तरह
औऱ बिखेर कर खुशबू
फूलों की तरह
झर जाएँगे हम एक दिन
धरती की छाती फोड़कर
उगेंगे फिर एक दिन
पकेंगे धूप की आग पर
हँसिए की तेज़ धार से
झूमते-झूमते कटेंगे हम एक दिन

सूखेंगे, पिसेंगे, गुँथेंगे
चूड़ियों भरे हाथों से
सिकेंगे उपलों की आग पर
और बुझाएँगे पेट की आग हम एक दिन

बरसेंगे उधर हिमालय की चोटियों पर
बर्फ़ बन जम जाएँगे
सूरज की किरणें भेदेंगी मर्म भीतर तक
आँख से बहते आँसू की तरह
पिघल जाएँगे हम एक दिन

आकाश की ऊँचाई नापते
परिंदे के टूटे पंख की तरह
अपनी नश्वरता में तिरते
अमर हो जाएँगे हम एक दिन ।

बँधी मुट्ठी से
रेत की तरह
झर जाएँगे हम एक दिन ।