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एक दुख यह भी / मनोज कुमार झा

इच्छा थी कि
चलूँ तो हरियाए पेड़ साथ लेकर चलूँ
पके बेर
अपनी तरफ़ के पानी से भरा तरबूज
बहुत-बहुत रौशनी में भकुआ गया उल्लू
और वो बूढ़ा कठफोड़वा लेकर जो अब
केले के पेड़ ढ़ूँढ़ता फिरता है
मगर
जहाँ भी जाता हूँ कोई दीवार साथ लग जाती है
जहाँ कुएँ का जल सूखा वहीं एक दीवार सीना फुलाए
खिड़की से भी आती हवा तो दीवार से पूछकर पता

लज्जा थी कभी कोई कि कोई क्या कहेगा दीवार देखकर
कोई कुछ नहीं कहता
अब तो यह दुख कि कोई कुछ नहीं कहता