भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक दुनिया है मेरे और तुम्हारे बाहर / स्वाति मेलकानी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जाने में कितना कह पाई
जाने तुम कितना समझे हो
पर एक दुनिया है शायद
मेरे और तुम्हारे बाहर
मुझे प्रेम है उस दुनिया से
वैसे ही
जैसे तुमसे है...
क्या तुम
विस्तृत कर पाओगे
अपनी दुनिया उन द्वारों तक
जोबाहर की
दुनिया मेंजाकर खुलतेहैं
क्या तुम मेरे साथ चलोगे
उस राह में
जो नहीं पहुँचती
सिर्फ तुम्हीं तक...
अनजानी है
मुड़ सकती है और कहीं भी
किसी दिशा में और कभी भी...
मुझे अकेले चलने का भय नहीं सताता
किंतु साथ हो तुम
तो वह सब जो सुंदरतम है
उसे खोज सकते हैं मिलकर
कर सकते हैं साझा
कई ऐसे क्षणों का
जिनमें जीवन के गहरे रंग
आ मिलते हैं
और रचते हैं
अन्धकार में
उड़ता जुगनू।
अब यह सब
कुछ जान-बूझ कर
क्या तुम मुझको आने दोगें
अपने अन्दर की दुनिया में
क्या तुम खुद को ला पाओगे
मेरे बाहर की दुनियाँ में...