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'''एक नदी यह भी '''
 
जिन राजमार्गों, राजवीथियों पर
सभ्यताओं के फलने-फूलने पर
तरल बहते लोगों से संडाध उठ रही है
संस्कृतियों के कल्पतरुओं का कहीं अता-पता नहीं है,
आखिरआख़िर, जिन तरुओं की जड़ों में दीमक लग गए हों
उनके बचने की उम्मीद कैसे की जा सकती है?
उन विषैले, पुष्पहीन-फलहीन पौधों के
जिन्हें छूना तो घातक है ही
देखने-सूंघने भर से कांटे काँटे चुभ जाते हैं
लोग-बाग़ बहते रहने के उन्माद में
भूल जाते हैं कि
वे पर्वतीय सडकों सड़कों से उतरकर सैकड़ों-हजारों हज़ारों गज नीचे
सचमुच, मिथक बन चुकी नदियों के
कंकाल में बहने लगे हैं
गंगा-जमुना की कंकाली पिंजर में
आरम्भ से अंत तक प्रवाहमान हैं
जो कुछ यूं यूँ लगता है कि जैसे
बूढ़ी लाशों के साथ व्यभिचार किया जा रहा हो
इन तरलजनों की बहते रहने की इच्छा ही
चला रही है शहरी रेला,
जहां जहाँ धक्कमपेल दिशाहीन चलते जाना
हर पल कुछ इंच आगे या पीछे विस्थापित होना
और तालियाँ बजाकर खुद का स्वागत करना
यही हमारी नियति है.है।</poem>
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