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एक पल की उम्र लेकर. / सजीव सारथी


सुबह के पन्नों पर पायी,
शाम की ही दास्ताँ,
एक पल की उम्र लेकर,
जब मिला था कारवां,
वक्त तो फिर चल दिया,
एक नयी बहार को,
बीता मौसम ढल गया,
और सूखे पत्ते झर गए,
चलते चलते मंजिलों के,
रास्ते भी थक गए,
तब कहीं वो मोड जो,
छूटे थे किसी मुकाम पर,
आज फिर से खुल गए,
नए क़दमों, नयी मंजिलों के लिए,

मुझको था ये भरम,
कि है मुझी से सब रोशनां,
मैं अगर जो बुझ गया तो,
फिर कहाँ ये बिजलियाँ.
 एक नासमझ इतरा रहा था,
एक पल की उम्र लेकर....