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एक पुराना मौसम / मनीष मूंदड़ा

आज हमें याद आया
फिर वह पुराना मौसम
यादों ने फिर टोह ली
वो पुरानी अनकही उलझी
बीती बातों की
वो सीने में उतरता उन्मुक्त चाँद
ठीक वही थोड़ी दूर पर
सहमी-सी गुजरती अनगिनत रातें
और इन सबके बीच नरम बहती पुरवाइयाँ
तुम्हारी बातें
तुम्हारे इशारों से भरी चमकती आँखे
कहाँ भुला पाया मैं आज भी वह नजारे
कल कितना अच्छा था
अब बेबस-सा मैं सोचता हूँ
हमारा वह कल
हमारे उस कल में ही जीना चाहता हूँ
उन देखे हुए, कुछ अध् पले सपनों में
आज भी अपना सच ढूँढता रहता हूँ
वो साथ बिताएँ मौसम, वह जागती हुई रातें
वो नरम हवाओं की बिसातें
वो सफेद दीवारों पर

हमारी उन परछाइयों की शक्ल को
आज भी मैं
उकेरता रहता हूँ
तुम्हे ढूँढने के बहाने