भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक बच्चे की हँसी / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

खो गई है

एक बच्चे की हँसी

यहीं कहीं इस भीड़ में ।

कलियों –से होंठो पर

जड़ दी गई हज़ारों कीलें

कँटीले विज्ञापनों की ;

जिनमें प्रति नायक के

टेढ़े-मेढ़े चेहरे हैं

और हैं उधार ली गई आवाज़ें

मकड़ जाल में लिपटी

बेहूदी आकृतियाँ

खोखली हँसी

आपाधापी मचाती

दृष्टिहीन भगदड़

इसी में

चिथ गए हैं

अंकुर -से नन्हें पाँव ।

बुझ गई है दृष्टि

गले में फँसकर

रह गई है चीख

यहीं इसी अंधी भीड़ में

गुम हो गई

एक बच्चे की दूधिया हँसी

हो सके तो

ढूँढकर ला दीजिए ।