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एक बाग़ी की स्वीकारोक्तियाँ / रणजीत

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नफ़रत है मुझे अपने देश से
जहाँ बचपन भीख माँगते हुए जवान होता है
और जवानी ग़ुलामी करते-करते बुढ़िया जाती है ।

जहाँ अन्याय को ही नहीं
न्याय को भी अपनी स्थापना के लिए
सिफ़ारिशों की ज़रूरत होती है
और झूठ ही नहीं
सच भी रोटरी मशीनों और लाउडस्पीकरों का मुहताज है
बेईमानी को ही नहीं
ईमानदारी को भी अपनी रक्षा के लिए
पैसों की ताक़त का सहारा लेना पड़ता है ।

जहाँ क्राँति की योजनाओं जैसे उल्लास भरे प्रारम्भ वाले
प्यार का अन्त
किसी निकटतम साथी के मृत्युदंड का- अवसादपूर्ण होता है
और भोर के टटके गुलाब की-सी ताज़ा सुकुमार सुन्दरता
सीलन-भरी अँधेरी कोठरियों में घुट-घुट कर बुझ जाती है !

जहाँ पुस्तक-गर्भी अँगुलियाँ
बर्तन माँज-माँज कर घिस जाती हैं
और स्पूतनिक बना सकने वाले दिमाग़
पत्थर ढो-ढो कर भोंथरे हो जाते हैं !

जहाँ पृथ्वी की परिक्रमाएँ कर सकने वाली वलेन्तिनाएँ
भारी जेबों और ऊँची कुर्सियों के आसपास भिनभिनाने वाली
कीलरें बन कर रह जाती है ।

नफ़रत है मुझे अपने धर्म से !
मेरा धर्म पत्थरों और पोथियों के आदेशों का धर्म है
फटे हुए कानों और नुचे हुए केशों का धर्म है
ज़िन्दा जलाई हुई सतियों और बधियाए हुए सन्यासियों का धर्म है
मुझे नफ़रत है अपने मठों और मन्दिरों से
जहाँ आतंक और अज्ञान को मूर्तियों में ढाल कर पूजा जाता है
नफ़रत है मुझे मिमियाते हुए होठों और जुड़ते हुए हाथों से

नफ़रत है मुझे घिसती हुई नाकों और झुकते हुए माथों से !
नफ़रत है मुझे अपनी सरकार से
जिसने रोटियों और भूखे हाथों के बीच पहरे लगा रक्खे हैं
कपड़ों और ठिठुरते हुए शरीरों के बीच
लक्ष्मण-रेखाएँ खींच रक्खी हैं
खाली मकानों और बेघरबार लोगों के बीच
दीवारें खड़ी कर रक्खी हैं
रोगियों और दवाओं के बीच कंटीले तार लगा रक्खे हैं
और किताबों और लोगों की आँखों के बीच
अँधेरे फैला रक्खे हैं !

हां, मैं बाग़ी हूँ
मुझे अपने देश, अपने धर्म और अपनी सरकार से नफ़रत है
मैं बाग़ी हूँ क्योंकि मुझे अपने लोगों से प्यार है
मैं इनके चेहरों पर बहार, इनके आंगनों में त्यौहार देखना चाहता हूँ
मैं बाग़ी हूँ, क्योंकि मुझे उन ज़ंजीरों से नफ़रत है
जो इन्हें जकड़े हुए हैं
उन सीमाओं से नफ़रत है, जो इन्हें बाँटे हुए हैं !