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एक बार फिर मुस्कुराओ बुद्ध / राकेश प्रियदर्शी

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हे बुद्ध!

इस समकालीन परिदृश्य में,

जब फट रही है छाती धरती की

पसर रही है निस्तब्धता

आकाश के चेहरे पर,

कहां हो तुम? आओ बुद्ध!

एक बार और मुस्कुराओ बु्द्ध


तुम्हारे आने व मुस्कुराने से,

जन-मन मंगल होगा,

धरती की गोद हरी-भरी हो जायेगी

और झूमने लगेगा सम्पूर्ण जीवमंडल


जगमगाते सितारों को बाहों में समेट कर,

तुम्हारे आने से फिर लिखा जायेगा

एक नया इतिहास और बनेगी

दया-करुणा की एक नयी संस्कृति

जहां खून से रंगे

असमानता की कहर बरपाती दीवार

नहीं होगी,

चलेंगे लोग प्रीति के साथ

तुम्हारे बताये मार्ग पर


चारों दिशाओं में गूंजेगी

एक बार फिर वही प्रतिध्वनि -

बुद्धं - शरणम् - गच्छामि

धम्मं - शरणम् - गच्छामि

संघं - शरणम् - गच्छामि