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एक बीज इश्क़ ज़ात का जब बो गई ग़ज़ल / सादिक़ रिज़वी

एक बीज इश्क़ ज़ात का जब बो गई ग़ज़ल
दिल ने कहा उठा ले क़लम हो गई ग़ज़ल

पाया सुरूर इश्क़ ने फिर वस्ले-यार में
दाग़े-जिगर के ज़ख्म को जब धो गई ग़ज़ल

बेचैन ज़ेहन-ओ-दिल को करूँ कैसे मुतमइन
वैसे हर इक के दिल में उतर तो गई ग़ज़ल

कमजोर इस क़दर तो न थी मेरी शायरी
क्यों मेरे हाले-ज़ार पे फिर रो गई ग़ज़ल

तनहा नहीं हूँ ख़ुशबुए जाने बहार है
मदफन में आ के साथ मेरे सो गई ग़ज़ल

मिलते ही नज़रें ज़ेहन पे वहशत हुई सवार
इस बेख़ुदी में जाने कहाँ खो गई ग़ज़ल

मजमें में लूट मच गई 'सादिक़' कलाम से
उस्ताद हँस के बोले मियाँ लो गई ग़ज़ल