http://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%8F%E0%A4%95_%E0%A4%AC%E0%A5%87%E0%A4%9F%E0%A5%80_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%A0%E0%A5%80_/_%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%A6_%E0%A4%A7%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%B2_/_%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE_%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%80&feed=atom&action=historyएक बेटी की चिट्ठी / प्रमोद धिताल / सरिता तिवारी - अवतरण इतिहास2024-03-28T16:21:18Zविकि पर उपलब्ध इस पृष्ठ का अवतरण इतिहासMediaWiki 1.24.1http://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%8F%E0%A4%95_%E0%A4%AC%E0%A5%87%E0%A4%9F%E0%A5%80_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%A0%E0%A5%80_/_%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%A6_%E0%A4%A7%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%B2_/_%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE_%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%80&diff=254662&oldid=prevJangveer Singh: '{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सरिता तिवारी |अनुवादक=प्रमोद धित...' के साथ नया पृष्ठ बनाया2018-09-06T03:41:49Z<p>'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सरिता तिवारी |अनुवादक=प्रमोद धित...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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{{KKRachna<br />
|रचनाकार=सरिता तिवारी<br />
|अनुवादक=प्रमोद धिताल<br />
|संग्रह=सवालों का कारखाना / प्रमोद धिताल / सरिता तिवारी<br />
}}<br />
{{KKCatKavita}}<br />
<poem><br />
माँ <br />
जि़न्दा हूँ आज तक<br />
और मिला है देखने को<br />
वित्ताभर का आकाश और एक टुकड़ा धूप<br />
<br />
घर छोड़ते वक़्त<br />
दरवाज़े में ही लगी थी ठोकर<br />
फूट–फूट के रो रही थी गोद की बिटिया<br />
खजुर के घास से कसे हुए भार जैसा<br />
कसी थी दिल<br />
और तनिक भी न मुड़ते हुए पीछे<br />
पकड़ी थी कठोर हृदय से रास्ता<br />
<br />
इस यातना गृह की खिड़की से<br />
घुसती है गर्म हवा<br />
और सुखा देती है गिरने से पहले ही<br />
मेरे गाल के गरम-गरम आँसू<br />
<br />
देखती हूँ कभी कभी पेड़ में<br />
घोंसला ही गिरने तक<br />
माँ को बुला रहे चिडि़या के बच्चे <br />
सिकुड़ आता है सीना<br />
अटकती है गले में ही साँस<br />
फफक–फफक के रोती हूँ<br />
और याद करती हूँ हर सिसकियों में<br />
मेरे बच्चों के मलिन चेहरे<br />
<br />
इतने साल हो गए<br />
गाँव छोड़े हुए<br />
रोते–रोते काठमाण्डू के आकाश से <br />
देश को छोड़े हुए<br />
तुम्हारा ही भरोसा था और छोड़ी थी<br />
बाँस के करले जैसे बच्चे<br />
‘कितनी निर्मम हो गई अभागन !’ कहती होंगी<br />
मेरे आए हुए साल और महीने गिनती होंगी<br />
अकेले ही रोती होंगी और बहाती होंगी<br />
अपने ही गाल की झुर्रियोँ में खोनेवाले आँसू <br />
<br />
सोचती हूँ<br />
अब कभी देख पाऊँगी या नहीं तुम्हें?<br />
<br />
यहाँ तो<br />
सहस्र युग से भी लम्बे हैं दिन<br />
असंख्य नर्क से भी घिनौनी हैं रात<br />
और हज़ारों बिच्छियों के दंश की पीड़ा से भी <br />
भयानक है जि़न्दगी<br />
<br />
तुम कहती थी<br />
‘औरत होना धरती होना है बेटी!’<br />
सच कहती थी !<br />
<br />
इधर आने के बाद मैं धरती ही हो गई हूँ<br />
सीने का अन्तिम पत्र भी तोड़ा जाने तक<br />
छिद्र–छिद्र हो गई हूँ<br />
आजीवन रीढ़ सीधा न होने तक<br />
गुलामी से झुक गई हूँ<br />
<br />
इस दासता कि जाल तो<br />
महाजन के आँगन से मरुभूमि तक फैला हुआ है माँ!<br />
अब भी कितना लम्बा<br />
और कितने युग तक का होगा यह जाल?<br />
<br />
इसी जाल से लपेटते-लपेटते<br />
ख़त्म होगी मेरी उमर<br />
ख़त्म होंगे मेरे सपने<br />
ख़त्म हूँगी यहीं मैं गुमनाम होकर<br />
लेकिन ख़त्म नहीं होगी मेरे साथ ही<br />
एक कंगाल देश की अभागिन औरत की कहानी<br />
<br />
आज तक तो<br />
जीवित हूँ माँ<br />
बित्ता-भर का आकाश <br />
और एक टुकड़ा धूप के सहारे!<br />
<br />
</poem></div>Jangveer Singh