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एक भारतीय पत्र मित्र इनद के नाम / दिविक रमेश

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मैंने चाहा कि बन कर जीऊँ मैं अरब
क्योंकि मुझे मित्र इनद का इराक अच्छा लगा था।
पर नहीं पता था मुझे
कि साँस इस हद तक भी दूभर की जा सकती है
कि आक्सीजन की जरूरत पड़ती है
और आक्सीजन कब्जे में है अब भी, सबसे ज्यादा क्रूर के

सोचता हूँ
क्यों की गई थी घोषित यह सदी संस्कृति-संघर्ष की
अच्छा ही क्यों लगा था इराक
मुझे मित्र इनद का।

इनद जानता था शासक की क्रूरता
भय उसे भी था
इनद को भी चाह थी बदलाव की
दुख उसे भी था
पर नहीं चाहता था इनद दखल किसी गैर का
यानी एक माने हुए विदेशी क्रूर का।

अफ़सोस है इनद को
कि नहीं समझा सका भय
अपने ही वासियों को।
नहीं खोल पाया रहस्य
इराक की छाती पर
इराक की ओर तनी
इराक के ही हाथों में
एक ज्यादा क्रूर की
स्वार्थ सनी तोपों का।

अफ़सोस है इनद को
कि काट कर हाथ
एक ज्यादा क्रूर ने
चढ़ा दिए अपनी फेक्टरी के
असंख्य कृत्रिम हाथ
इराक के लूले पर।

अफ़सोस है इनद को
कि अब हवाओं में नहीं रही शेष
महक खजूरों की
जायका लाल चाय का।
कि इराक का अपना आकाश
शून्य हो गया अपने ही बादलों से
कि दरकने लगी है धरती।

वह जो एक ज्यादा क्रूर है
बैठा है मासूमियत का सबसे बड़ा आवरण लिए।
कि वह सफल है
कि अपनी क्रूर मुस्कान
कर दी है स्थापित
उसने इराक के कितने ही मासूम होठों पर
कि कर दिया है आरोपित
अपना क्रूर चेहरा उतारकर, चेहरों पर।
कि दे दिए हैं रूप जल्लाद के।
बाँट दिए हैं मुफ्त
अपनी फेक्टरी के फंदे
इराकी गलों के लिए।

अफ़सोस है इनद को
कि एक ज्यादा क्रूर
एक सबसे महान मनुष्य के ढोंग में
सफल है फिर एक बार
दुनिया को ठेंगा दिखाने की मुद्रा में।
फिर एक बार
चढ़ाए हैं उसने श्रद्धा-पुष्प
अपने ही द्वारा घोषित
विचारधाराओं की संघर्ष-सदी की कब्र पर।

अफ़सोस है मुझे भी
कि मित्र इनद का इराक मुझे अच्छा लगा था,
इराक जो मरा है और वह भी खुली आँखों।
कितनी भयावह होती है वह लाश
जिसकी आँखें खुली होती हैं !

अफ़सोस है मुझे भी
कि न वह मिठास है न जायका
वह गायकी भी नहीं ओम्मो कल्थूम की
जो शिया थी न सुन्नी
बस थी
और खूब थी।

जाने कैसा होगा अब
मेरे मित्र इनद का इराक
और कैसे होगे तुम खुद मित्र इनद
कोसने के बावजूद सद्दाम को
कितनी तो नफ़रत थी तुम्हें अमरीका से।


नोटः १. (प्रो. इनद कोरिया में कवि के सहकर्मी थे)
२. ओम्मो कल्थूम अरब की सुविख्यात लोक गायिका थीं।
३. इराक के लोग शौक से फूलों वाली ’लाल चाय‘ पीते हैं।