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एक भुजंग / रित्सुको कवाबाता

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योगाभ्यास की कक्षा में
मैं लगाती हूँ भुजंगासन
लेटकर पेट के बल
प्रबाहू झुका फर्श पर
निकाल कर सांस बाहर .
मैं उठाती हूँ अपना सर
ठोढ़ी आगे की तरफ
गिनते महसूस करते
एक पसली,दूसरी पसली
आखिर में छाती उठा कर .
मैं लेती हूँ एक सांस
घुमाकर सर को
देख पाती हूँ केवल घास और मिटटी !
सिकोड़ते व फैलाते हुए
अपने पेडू की पेशियाँ
रेंगती हूँ आगे .
मैं महसूस करती हूँ दुनिया नाग - दृष्टि से
मैं रेंग सकती हूँ मिटटी में ,
दूर रो रहा है कोई?
आरहा है कोई दो पैरों पर ?
वह नहीं देख सकता कुछ भी ज्यादा दूर .
वह नहीं देख सकता कुछ भी ऊपर .
भयभीत
नाग रेंगता है आगे
वृक्ष के सिरे तक .
वह लेता है सांस सारे शरीर से .
एक पल में ,
उसका गला फूलता है
चश्मे सी धारियां उसकी पीठ पर
बदल जाती हैं बड़ी बड़ी आँखों में .
वह सम्हालता है अपना सर
जो की लगता है
तेज़ हंसिया/दरांती सा
वह नाग की एक चाल है
एक छद्म वेश !

अनुवादक: मंजुला सक्सेना