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एक माँ का होना / लीलाधर मंडलोई

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जरूरी नहीं कि यह कविता हो या ऐसा कुछ कि कविता की तरह लगे
ऐन मेरे सामने घटा
घटित को कोई हादसा भी ठीक-ठीक कहना गलत होगा
पर घटा कुछ ऐसा कि खरोंच गया आत्‍मा

उसी दिन जन्‍म और तत्‍काल मृत्‍यु
बड़ी तैयारियां थीं स्‍वागत की
बरसों-बरस बाद किसी बच्‍चे की किलकारी गूंजना थी
कबीला जो था जन्‍मोत्‍सव की तैयारी में
रोते-डीपते लौट गया धरती को सौंपकर

धरती भी कदाचित् इस तरह तैयार न थी और
दुक्‍ख जो किसी मां के चेहरे पर हो सकता था अधिक, वह था
उतार लिये गये वंदनवार
नर्तक लौट चुके थे वापस
एक मैं जो पहुंचा चश्‍मदीद गवाह बनने
एक अबोध अकल्पित मृत्‍यु का दर्शक बना

वहां धती बस इतनी थी कि घूमी जा सके दो-एक घंटे में
बेमकसद घूमता रहा भारी होते मौसम में
रह-रहकर गूंजती थीं सिसकियां, देर सबेर आर्तनाद

रात गये एक छाया थी कि उभरती थी रह-रहकर
छाया के कदम जाते वक्‍त होते थे तेज
लौटते पस्‍त और बेदम, मैं भयभीत और एकदम सन्‍न
इतनी उदास कि कल्‍पनातीत

हो लिया अगली दफा छाया के पीछे
दबे पांव इतनी दूर और कुछ इस तरह फासले पर कि
कोई आहट न हो किसी के होने की

बेपरवाह दुनिया जहान से भागती थी उस तरफ
जिधर सोया थ वह अचल अबोध्‍ा
छाया से एक मां का होना समझ आता था
मैं चेष्‍टा में देख सकूं सत्‍य बचता-बचाता

अवाक इतना कि ऐसा देखा न था
छाया सौंप रही थी आंचल का अटल रस कि
जिधर हो सकते थे अधर अचल अबोध के
वह रस जो उसके हिस्‍से का थ उतर रहा था बिना रूके
वास्‍ते उसके जो लौट गया भूख अपने रास्‍ते

एक मां न सही पढ़ी-लिखी, न दुनियादार
सौंपती है अचल-अबोध को उसका हिस्‍सा
दौड़ती रहेगी रात-बिरात कि भूखा है वह, उसकी आत्‍मा भूखी

लौटेगा एक दिन वह कि इस तरह लौटा है
कोई कभी उसकी दुनिया से भूखा-प्‍यासा