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एक यात्रा के दौरान / नौ / कुंवर नारायण

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शायद उसी वक़्त मैंने

गिरते देका था ट्रेन से दो पांवों की

और चौंक कर उठ बैठा था ।

पैताने दो पांव-

क्यों हैं यहां ? क्या करूं इनका ?


सोच रात है अभी,

सुबह उतार लूँगा इन्हें

अपने सामान के साथ ।

सुबह हुई तो देखा

कन्धों पर ढो रहे थे मुझे

किसी और के पाँव ।


हफ़्ते.....महीने....साल....


बीत गए पल भर में,

“पिता ? तुम ? यहां ?”


“मुझे चाहिए मेरे पाँव,....वापस करो उन्हें ।”

“नहीं,वे मेरे हैं : मैं

उन पर आश्रित हूँ।

और मेरा परिवार :

मैं उन्हें नहीं दे सकता तुम्हें !”


वे हँसने लगे, एक बेजान असंगत हँसी ।

कभी कभी किसी विषम घड़ी में हम

जी डालते हैं एक पूरा जीवन - एक पूरी मृत्यु --

एक पूरा सन्देह कि कौन चल रहा है

किसके पाँवों पर ?