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एक सुबह ऐसी भी / अनुपम सिंह

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सुबह से मची थी अफ़रातफ़री
बेरहमी से
दो फाड़ हो रही थीं चीज़ें ।

तुच्छ चीज़ों के लिए
मुलायम चेहरों पर झलका था
कसैलापन
हवा एकदम रुक्ष थी
चौकन्ने थे खूँटे पर बैल
कान पारे खड़ा था कुत्ता
गायें पूछ रही थीं मानो
आखिर ! किस दरवाज़े बान्धी जाऊँगी ।

बच्चे अकबकाए हुए थे
जैसे पहली बार देखी हो सनकी हवाएँ
जिसने उजाड़ दिए घरौन्दे उनके
हवाओं के रुख पर
खींची गईं दीवारें
दीवारों में क़ैद हो गया
उनका उत्साही स्वर, हो-हल्ला
बच्चों के बोलने में
बढ़ने के बजाय
घट गए शब्द ।

हकलाहट के गीत गाते
बड़े हुए वो बच्चे
भेदने की हद तक घूर रही थीं
उधार के पानियों वाली आँखें
बुरादे-सी भुरभुरी उनकी सम्वेदनाएँ
जल उठीं अँगीठियों में ।

शक के लाल घेरे में बनता-बिगड़ता
उभरा था एक बूढ़े का प्रतिबिम्ब
एक पुराना बाकस
खोला गया लालची उम्मीदों से
चारपाई पर दम तोड़ती
काँपी थी एक मरियल आवाज़
काँपते हुए उठे थे हाथ ।

न अभिशाप
न आशीर्वाद
जीवन अनुभव से पैदा शान्ति
पुरखों की सब चीज़ें बाँट लो
लो हड़प लो हण्डा
लोग सबकुछ छोड़
दौड़े आँगन की ओर
दो उजरी धोतियाँ
एक पुराना ट्राँजिस्टर और
काग़ज़ों में लिपटी पुरानी गन्ध
बन्द थी बाकस में रहस्य-सी ।

तब निराशा की भद्दी तुकबन्दियों में
बौखला उठे लालची लोग
औरतें भी जल्दी में थीं
इकठ्ठा कर रहीं थीं
मायके से विदा में मिली
छोटी-बड़ी सब चीज़ें
थार, परात, गगरा
लोटा,थाली, कजरौटा ।

बस, इन्हीं चीज़ों पर
था इनका अख़्तियार
फुसफुसाहट व्यक्त हुई
एक अश्लील विचार की तरह
कि दसरथ के घर इस बार
सीता और रुक्मिणी का नहीं
सुपनखा का डोला घूमा है
यही है बँटवारे की जड़
इन्हीं के पेट मडार हैं
नहीं भरते ।

जबकि उनकी देह पर नहीं था
तोला भर अधिक मांस
दूर से ही दिखाई देता
उनका पीला डरावना दाँत
ढकर-ढकर करती आँखोंवाली
ये औरतें,
कमज़ोर पक्ष थीं बँटवारे का ।

बँटवारा रोकने की
करने को कोई भी बँटवारा
सामर्थ्य नहीं थी इनमें
फिर भी बँटवारे का पहला लाठा
चला इन्ही की पीठ पर
कहाँ बेईमानियाँ हुईं
कहाँ बरती गईं ईमानदारियाँ
पता नही, फिर भी सीलबन्द मुहरें
जड़ी गईं इनके माथे पर ।

इन्ही को बनाया गया नाक का सवाल
इन्ही पर लगाई गईं तोहमतें
ये क्या-क्या थीं
थीं कहाँ-कहाँ
ख़ुद इन्हें मालूम नहीं
बँट रही थी इँच-इँच ज़मींन
मुट्ठी-मुट्ठी अनाज
हरा पेड़
खड़ी खेती

बँट रहा था
चुटकी-चुटकी दुःख
चुटकी भर स्वार्थ के लिए
लेकिन चुटकी से ज़्यादा
हिस्से नही आया नमक
जहाँ सीझतीं थीं रोटियाँ
जहाँ सोन्धे भात की महक से
खनकती थीं थालियाँ
उस जलते हुए चूल्हे में
झोंक दी गईं लाल मिर्चें
यह कोई टोटका नहीं
मिर्चोंवाला ज़हरीला धुआँ
अब भी बरसता है
काले और भूरे बादलों संग ।