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एक ही रूप / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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11
टूटा जो पेड़
छोड़ गए थे पाखी
लता लिपटी।
12
तुम छा गए
मन- अम्बर पर
बन सौरभ।
13
मेरा जो रंग
चमकेगा तभी तो
खिले पाँखुरी।
14
चूम पंखुरी
रंग तुमसे पाया
अधर भीगे।
15
चूमे अधर
नयन मदभरे
रंग निखरे।
16
कभी तो आओ
बाहें फैलाकरके
गले लगाओ ।
17
कभी जो मिलो
बन उर -कलिका
सदा ही खिलो।
18
एक ही रूप-
प्रभुवर हों मेरे,
या मेरा चाँद।
19
अमृत सिन्धु
जिसको भेंट मिला
मिली है तृप्ति
20
पाथर नहीं,
जब खूब निहारा
पाया था प्रेम।
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