भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एलीट का सैण्डविच / साहिल परमार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक पेड़ से अलग होकर
दूसरे पेड़ पर कलम की गई
डाल की भाँति झूल रहा हूँ.... झूल रहा हूँ
धुन्ध... धुन्ध चहुँ ओर छाई है
धुन्ध के बीच में भूल रहा हूँ... भूल रहा हूँ
दूरदराज की
झुग्गियों के बीच
दीवार से टेक लगाकर
धुँधले फ़ानूस के प्रकाश में
पुस्तकें भी कुछ पढ़ी थी मैंने
सूत का चरखा फेरते-फेरते
पन्ने भी कुछ पलटे थे मैंने
जाड़े की सिहरन भरी रात को
रबर के टायर जलाके हमने
बातों के कई ढेर साथ में जला दिए थे
धूल में खेले हम गोटी
धूल में गुल्ली डण्डा खेला था
साथ में जिनके
वही दोस्त अब वामन लगते
चाली के नुक्कड़ पर अब मैं
टोली से अपनी मिल नहीं पाता।

राणीप के एक बंगले के
कमरे में –
रीडिंग रूम में
तल्स्तोय और दस्ताएवस्की
मेरे इर्द-गिर्द चकराते रहते
कभी-कभार जाऊंँ चाली में तो
रुआब दिखता
सलाम सबकी ओर से मिलता
पीठ पीछे सब कहते; देखो
इन सालों को दलित कहेंगें कैसे ?
क्या अधिकार है इन लोगों को
दलित की बातें करने का ?
ये तो, साले,
बड़े-बड़े मकानों वाले
बाइक स्कूटर गाड़ी वाले
बड़े हो गए
लटक-मटक के चलनेवाली
फ़ैशन कितनी करनेवाली
जोरू के घरवाले हो गए
बुनकर से कुछ वखारिया और
कुछ-कुछ तो सुतरिया हो गए
चमार से अब चक्रवर्ती और
तूरी में से तीरकर हो गए
कोई बन गया अमीन, दलाल
कुछ-कुछ लोग तो बैंकर बन गए
यह भी कुछ कम नहीं, बेटमजी,
गणपत में से साहिल हो गए
निर्लज्ज होकर
दलित प्रश्न पर
भौंकते हैं ये
उपन्यास या कविता लिखते
कवि बनकर
नारे लगाते फिरते हैं ये
बम्बई जाकर
मिठाई-मेवा चरते हैं ये
ये तो भोथर चमड़ीवाले
खुटल, साले,
जरूरत हो तो
मगर को आँसू बेचनेवाले
निर्लज्ज, साले,
हैरत और दुख
दोनों से मन भर जाता मेरा
उस तरफ़ भी
पटेल-पण्डया-सोनी-मेहता
नए साल पर एक-दूजे को
करें निमन्त्रित
मुझे निमन्त्रण रूखा-सूखा
ना आये तो अच्छा
मन में उनके भाव छुपा ये
कितना भी सुधरा हो लेकिन
चमार आखिर .... !
उसको कैसे घर ले जावें ?
दफ़्तर में कौमुदी-रीटा
राधागौरी वीणा केतकी
मुझ से दूर-दूर ही रहतीं
एक तो उस में धन्धेवाली
डबल भावसे ऑफर की
फिर भी सोचे है
चमार के क्या .........
व्यभिचार भी ऊँचा-नीचा
वाह ! मनिये तेरी माया
करसन तेरा कामण

फ़्लैट किराए पर ना देते
मकान उनके बीच
ख़रीदने जाएँ
तो नहीं मिल पाता
अपनापन हम
कहाँ से पाएँ ?
सुधर गए तो कहेंगे ये
ये तो, साले, दलित नहीं
गर सुधरे ना
तो वो कहते
चमार, साले, सुधरे नहीं
सुधरे बिना तो चारा नहीं
सुधर गए फिर भी न अपनाते।
ताने मिलते दोनों ओर से
यहाँ-वहाँ बस झूलते रहना
दोनों के बीच लटकते रहेना
दोनों के बीच पिसते रहना
आगे कुआँ पीछे आग
बीच में अन्धा भागम-भाग
पर कहाँ ?
ख़बर है किस को ?

मूल गुजराती से अनुवाद : स्वयं साहिल परमार