Last modified on 10 नवम्बर 2013, at 22:03

ऐसा कोई आदमी / सिद्धेश्वर सिंह

पेड़ अब भी
चुप रहने का संकेत करते होंगे ।
चाँद अब भी
लड़ियाकाँटा की खिड़की से कूदकर
झील में आहिस्ता-आहिस्ता उतरता होगा ।
ठण्डी सड़क के ऊपर होस्टल की बत्तियाँ
अब भी काफ़ी देर तक जलती होंगी ।

लेकिन रात की आधी उम्र गुज़र जाने के बाद
पाषाण देवी मन्दिर से सटे
हनुमान मन्दिर में
शायद ही अब कोई आता होगा
और देर रात गए तक
चुपचाप बैठा सोचता होगा --
                  स्वयं के बारे में नहीं
                  किसी देवता के बारे में नहीं
                  मनुष्य और उसके होने के बारे में ।

झील के गहरे पानी में
जब कोई बड़ी मछली सहसा उछलती होगी
पुजारी एकाएक उठकर
कुछ खोजने-सा लगता होगा
तब शायद ही कोई चौंक कर उठता होगा
और मद्धिम बारिश में भीगते हुए
कन्धों पर ढेर सारा अदृश्य बोझ लादे
धुन्ध की नर्म महीन चादर को
चिन्दी-चिन्दी करता हुआ
मल्लीताल की ओर लौटता होगा ।

सोचता हूँ
ऐसा कोई आदमी
शायद ही अब तुम्हारे शहर में रहता होगा
और यह भी
कि तुम्हारा शहर
शायद ही अब भी वैसा ही दिखता होगा !