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ऐसा क्या दे दिया / प्रतिभा सक्सेना

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ऐसा क्या दे दिया सभी हो गया अकिंचन
दुनिया के वैभव सुख के मुस्काते सपने,
मदमाता मधुमास टेरती हुई हवायें
सबसे क्या तुमने नाते जोडे थे अपने!
हास भरा उल्लास और उत्सव कोलाहल,
जो आँखों के आगे वह भी नजर न आता,
यों तो बहुत विचार उठा करते हैं मन में
उस रीतेपन मैं भी कोई ठहर न पाता!

रँगरलियाँ रंगीन रोशनी की तस्वीरें,
दिखती हैं लेकिन अनजानी रह जाती हैं!
और कूकती हुई बहारें जाते-जाते
इन कानों में कसक कहानी कह जाती हैं!
जाने क्या दे दिया कि सपना विश्व हो गया,
जो आँखों के आगे वह भी नजर न आता,
यों तो बहुत विचार उठा करते हैं मन में,
पर इस रीते पन में कोई ठहर न पाता!

तुमने कुछ दे दिया नहीं जो छूट सकेगा,
और करेगा सभी तरफ से मुझको न्यारा!
रह-रह कर जो इन प्राणो को जगा रहा है
बन करके मुझमें अजस्र करुणा की धारा!
सारी रात जागती आँखों के पहरे में,
ऐसी क्या अमोल निधि धर दी मेरे मन में,
छू जिसको हर निमिष स्वयं में अमर हो गया,
और बँध गया जीवन ही जिसके बंधन में!

तुमने क्यों दे दिया अरे मेरे विश्वासी,
जब लौटाने मुझमें सामर्थ्य नहीं थी!
जान रहा मन आज कि सौदागर की शर्तें,
लगती थीं कितनी लेकिन बेअर्थ नहीं थीं!
उलझा सा है जिसको ले मेरा हरेक स्वर,
जाने कितनी पिघलानेवाली करुणाई
तुमने वह दे दिया कि मन ही जान रहा है,
मेरे मानस को इतनी अगाध गहराई!

अपने में ही खोकर जो तुमसे पाया है,
अस्पृश्य है कालेपन से औ'कलंक से,
बहुत-बहुत उज्ज्वल है, पावन है, ऊँचा है,
रीति -नीति की मर्यादा से पाप पंक से!
ऐसा कितना बडा लोक तुमने दे डाला,
जहाँ नहीं चल पाता मेरा एक बहाना .
जिसके कारण मैं सबसे ही दूर पड गई,
बुनते हरदम एक निराला ताना-बाना!

ऐसा क्या दे दिया कि सम्हल नहीं पाती हूँ,
कह जाती सब ले गीतों का एक बहाना!
फिर भी मन का मन्थन, कभी नहीं थम पाता,
नींद और जागृति का भी प्रतिबन्ध न माना!
सचमुच इतना अधिक तुम्हारा ऋण है मुझ पर,
जनम-जनम भर भर भी उऋण नहीं हो पाई,
इसीलिये चल रही अजब सी खींचा तानी,
जब तक शेष न होगी पूरी पाई-पाई!

इतना क्या दे दिया कि जिससे बाहर आकर,
लगता सबकुछ सूना औ' सबकुछ वीराना,
मेरा सारा ही निजत्व जिसने पी डाला,
शेष सभी को कर बैठा बिल्कुल वीराना!
आँचल स्वयं पसार ले लिया सिर आँखों धर,
अब लगता है बहुत अधिक व्याकुलता पाली,
चैन न पाये भी बिन पाये और नहीं था,
एक धरोहर तुमने मुझे सौंप यों डाली!