भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ऐसा लगता है कि जैसे कुछ न कुछ होने का है / पुरुषोत्तम अब्बी "आज़र"

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ऐसा लगता है कि जैसे कुछ न कुछ होने का है
क्या बचा है पास अपने जिसका डर खोने का है

क्यूं तसल्ली दे रहे हैं झूठी अपने आपको
जागने के वक्त को हम कह रहे सोने का है

इस तरफ भी गौर करने से भला हो देह का
तन तो हमने धो लिए है मन बचा धोने का है

जब बुरा कहने लगे खुद अपनी यूँ औलाद भी
बोझ इससे और बढ़ कर तू बता ढोने का है

तू समझता होगा "आज़र" वो पिघल ही जाएगा
मुझको तो लगता नहीं कि फायदा रोने का है