Last modified on 2 जून 2011, at 23:13

ऐ...सुन ज़रा...!!! / शमशाद इलाही अंसारी

जो बात तुझे तोड़ दे
जो भाव तुझे सहमा दे
जो भंगिमा तुझे कुरकुरा दे
जो संस्कार तुझे कुम्हला दे
जो क़िताब तुझे कमज़ोरी दे
जो वाक्य तुझे शर्मा दे
जो नज़र तुझे "भोग्या" बना दे
जो कविता और जो कवि
जो ख़याल..तेरी काम्यता के विचार बुने
जो हाथ तुझे सज़ा दे
किसी बाज़ार के लिए
जो एहसास तुझे भयातुर कर दे
जो धर्म, जो दृष्टिकोण, अवरुद्ध कर दे
तेरे नैसर्गिक विकास को
छीन ले तुझ से तेरी अपनी मुस्कान
रोप दे तेरे मस्तिष्क में
एक अनचाहा गर्भ,
जिसका बोझ
झुका देता है तेरी गर्दन, तेरी कमर
रोक लेता है तेरा यौवन ।
इस कथित सभ्यता की गर्त ने
बना दिया है तुझे मात्र
एक अद्भुत्त आडंबर वाहिनी
सदियों पूर्व ही छीन लिया है
तुझ से तेरा उन्मुक्त यौवन ।
तेरे जिस्म से
नज़र, धर्म, संस्कार जैसी एक-एक
आदिकालीन पत्तियों को मैं नौंच लेना चाहता हूँ
और, शरद ॠतु में ओक के पेड की तरह
नवजात, मौलिक और प्राकृतिक
बर्फ़ानी अंधडों में तेरा स्नान
जब बसंत आए, तब रोम रोम तेरा नया हो
सबलता, सुफ़ल, स्वावलंबन के फलों से
तेरा शरीर भर जाए
तू खिलखिला कर
सीधी कमर, सीधी गर्दन
आँख में आँख डाल कर
निडर होकर
दुनिया के सर्वोच्च शिखर पर खडे़ होकर
गर्व से कहे
मैं हूँ, मैं हूँ, मैं हूँ
एक स्त्री...!!

रचनाकाल : 05.11.2010