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ऐ इश्क़ कहीं ले चल / 'अख्तर' शीरानी

ऐ इश्क़ कहीं ले चल, इस पाप की बस्ती से,
नफ़रत-गहे-आलम<ref>घृणा से भरी हुई दुनिया</ref> से, लानत-गहे-हस्ती<ref>लानत भरा संसार</ref> से,
इन नफ़्स-परस्तों<ref>कामासक्तों</ref> से, इस नफ़्स-परस्ती से,
दूर और कहीं ले चल,
ऐ इश्क़ कहीं ले चल !

हम प्रेम-पुजारी हैं तू प्रेम-कन्हैया है !
तू प्रेम-कन्हैया है, यह प्रेम की नय्या है,
यह प्रेम की नय्या है, तू इसका खिवैया है,
कुछ फ़िक्र नहीं, ले चल,
ऐ इश्क़ कहीं ले चल !

बे-रहम ज़माने को अब छोड़ रहे हैं हम,
बे-दर्द अ़ज़ीज़ों<ref>प्रिय बन्धुओं</ref> से मुँह मोड़ रहे हैं हम,
जो आस थी वो भी अब तोड़ रहे हैं हम,
बस ताब<ref>सहनशक्ति</ref> नहीं, ले चल,
ऐ इश्क़ कहीं ले चल !

शब्दार्थ
<references/>