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ऐ यार मेरे हिज्र के जंगल को जला दे / रमेश 'कँवल'

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ऐ यार मेरे हिज्र के जंगल को जला दे
और अपनी मुलाक़ात की बरफ़ीली घटा दे

मै कब से तसव्वुर1 के दरीचों पे खड़ा हूं
कब होगा निगाहों को मयस्सर2 तू बता दे

मैकर्बे-जुदार्इ3 के जंज़ीरों में हूं बेदम
तूक़ुर्ब4 की ख़ुशबू में सनीनर्महवादे

पहचान पुरानी है मगर भांप रहा हूं
किस चौक पे ये शख़्स निगाहों से गिरा दे

गिरती हुर्इ दीवारे-वज़अ़दारी5 के नीचे
इन टूटते संबंधों की बुनियाद ही ढ़ा दे

मैं वक़्सत के मलबूस6 मे बदला यूं हर इक पल
अब आर्इ ना हर लम्हा मेरा रूप भुला दे

ताने हुये सोया हूं'कंवल’ शबनमी चादर
मुझ को तो न उगते हुये सूरज का पता दे

1. कल्पना 2. प्राप्त-उपलब्ध 3. विरहवेदना 4.समीपता
5. तरहदारी, किसी, बात को मरते दम तक एक तरह से
निबाहना 6. वस्त्र-वसन