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ऐ साक़ी-ए-मह-वश / अब्दुल हमीद 'अदम'

ऐ साक़ी-ए-मह-वश ग़म-ए-दौराँ नहीं उठता
दुर्वेश के हुज्रे से ये मेहमाँ नहीं उठता

कहते थे के है बार-ए-दो-आलम भी कोई चीज़
देखा है तो अब बार-ए-गिरेबाँ नहीं उठता

क्या मेरे सफ़ीने ही की दरिया को खटक थी
क्या बात है अब क्यूँ कोई तूफ़ाँ नहीं उठता

किस नक़्श-ए-क़दम पर है झुका रोज़-ए-अज़ल से
किस वहम में सजदे से बयाबाँ नहीं उठता

बे-हिम्मत-ए-मर्दाना मसाफ़त नहीं कटती
बे-अज़्म-ए-मुसम्मम क़दम आसाँ नहीं उठता

यूँ उठती हैं अँगड़ाई को वो मरमरीं बाहें
जैसे के 'अदम' तख़्त-ए-सुलैमाँ नहीं उठता.