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ऐ हज़रत ईसा नहीं कुछ जा-ए-सुख़न अब / 'शोला' अलीगढ़ी

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ऐ हज़रत ईसा नहीं कुछ जा-ए-सुख़न अब
वो आ गए रखवाइए तह कर के कफ़न अब

सींचा गया फूला है नए सिरे से चमन अब
अश्कों ने किए सब्ज़ मिरे दाग़-ए-कुहन अब

वो शौक़-ए-असीरी खुले गेसू के शिकन अब
तरसेंगे क़फ़स के लिए मुर्ग़ान-ए-चमन अब

ख़ामोशी ने मादूम किया और दहन अब
तुम ही कहो बाक़ी रही क्या जा-ए-सुख़न अब

यारान-ए-वतन को है ग़रीबों से किनारा
गुर्बत का तक़ाज़ा है करो तर्क-ए-वतन अब

सुन लीजिए कुछ क़िस्सा-ए-बे-ताबी-ए-दिल को
जो जी में हो कह लीजिए फिर मुश्फ़िक़-ए-मन अब

सीमाब बनाया बुत-ए-हिज्राँ ने जिगर को
दिल ठहरने देती नहीं सीना की जलन अब

आख़िर कोई हद भी तिरी ऐ दूरी-ए-ग़ुर्बत
मायूस हुए जाते हैं यारान-ए-वतन अब

क्या फ़िक्र है ऐ ‘शोला’ पियो बादा-ए-रंगीं
डालो भी कहीं भाड़ में ये रंज ओ मेहन अब